Just random poetry 4
एक उम्र बीत गयी पराई महफ़िलोंको सजाते सजाते
पर तन्हाईयाँ ही अपनी है, ज़िंदगी रह गयी समझाते समझाते
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इस शहर का निज़ाम कुछ ऐसा है
है ख़ंजर जिसके हाथ में, इन्साफ वही करता है
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चश्मदीद है सारे अंधे, बहरें सूनते दलील
बस झूठ का है रूतबा, सच तो हुआ ज़लील
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अंजाने लोगोंको अपनीही बात सूनाता रहा
अंधेरोंमें अपनेही साए को तराशता रहा
ज़िंदगी तो पूछती रही हाल मेरा
मैं ही गलत दरवाजोंपर दस्तक देता रहा
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यूँ तो न जाने कितनी ही रातें गुज़ारी नींद का इंतज़ार करते बिना सोए
सुकून तो तब आया जब एक दिन आंखें खुली रही और हम सो गए
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कुछ ख्वाहिशें थी दबी दबी सी
कुछ मुस्कराहटें मंद मंद सी
सपने थे कुछ खोये खोये से
आहटें सूनी अनसुनी सी
लम्हें थे कुछ दर्द भरे
कुछ ना समझे इशारें
पर कही से कहना है कुछ
तो दिल बस तुम्हे ही पुकारे
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