Posts

Showing posts from October, 2021

Just random poetry 4

एक उम्र बीत गयी पराई महफ़िलोंको सजाते सजाते पर तन्हाईयाँ ही अपनी है, ज़िंदगी रह गयी समझाते समझाते  -- x --  इस शहर का निज़ाम कुछ ऐसा है है ख़ंजर जिसके हाथ में, इन्साफ वही करता है  -- x -- चश्मदीद है सारे अंधे, बहरें सूनते दलील बस झूठ का है रूतबा, सच तो हुआ ज़लील  -- x -- अंजाने लोगोंको अपनीही बात सूनाता रहा अंधेरोंमें अपनेही साए को तराशता रहा ज़िंदगी तो पूछती रही हाल मेरा मैं ही गलत दरवाजोंपर दस्तक देता रहा  -- x -- यूँ तो न जाने कितनी ही रातें गुज़ारी नींद का इंतज़ार करते बिना सोए सुकून तो तब आया जब एक दिन आंखें खुली रही और हम सो गए  -- x -- कुछ ख्वाहिशें थी दबी दबी सी कुछ मुस्कराहटें मंद मंद सी सपने थे कुछ खोये खोये से आहटें सूनी अनसुनी सी लम्हें थे कुछ दर्द भरे कुछ ना समझे इशारें पर कही से कहना है कुछ तो दिल बस तुम्हे ही पुकारे

Remembering Nida Fazli

  उस के दुश्मन हैं बहुत आदमी अच्छा होगा वो भी मेरी ही तरह शहर में तन्हा होगा इतना सच बोल कि होंटों का तबस्सुम न बुझे रौशनी ख़त्म न कर आगे अँधेरा होगा प्यास जिस नहर से टकराई वो बंजर निकली जिस को पीछे कहीं छोड़ आए वो दरिया होगा मिरे बारे में कोई राय तो होगी उस की उस ने मुझ को भी कभी तोड़ के देखा होगा एक महफ़िल में कई महफ़िलें होती हैं शरीक जिस को भी पास से देखोगे अकेला होगा