Just Random poetry -3

अपना ज़मीर घोल के स्याही में
सियासत की वाह वाह कर रहें हैं
बाजार है ये खबरोंका पर
खबरें कम पत्रकार ज़्यादा बिक रहें हैं

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मंदिर मस्जिद के नाम पर
हम जैसोंको ही तो काटा है...
खून का रंग तो एक जैसा है
बस राजनीति ने बांटा है

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आज कुछ वक़्त मिला फिर उसे याद किया
ऐसे जैसे चोरी से तिजोरी से गहना उठा लिया
छोटी सी ही तो बात थी, ना की तकरार थी
यूँ ही एक ज़िद ने दोनों को बर्बाद किया 

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उसे सितमगर क्यों कहूं दिल मेरा ही बेगाना हो गया था,
वह तो बस राह में मिली थी मैं ही उसका दीवाना हो गया था

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दिन गुजर जाता है मगर कटती  नहीं है रात
कभी कभी तो गुजर के भी नहीं गुजरती है रात
संभालू कितना भी अपने आप को मगर
टूटे हुए आईने सी चूभती रहती है रात
चाहे उससे दूर रहूँ नजरंदाज करू जितना भी मैं
ये रिश्ता ही कुछ ऐसा है के ताने मारने आती है रात

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यूं तो वो मसरूफ रहते है बहुत जमाने के कारोबार में
पर मैं भी कमनसीब ना हूँ, यकीं जो मैं करता हूँ उनके बहानों में 

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आप से एक गुज़ारिश है
बस इतना कीजिए
कभी हमें भी आप के सपनोंमें
आने की इजाज़त दीजिए

आपकी नींद ना टूटे
ये ज़िम्मा हमारा
क़ुसूरवार है पर
दिल ही तो है ... क्या कीजिए 

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वो सही थी
था तो मैं भी सही
हां बस ये एक बात गलत थी

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